Hanuman Chalisa Superfast
Brijesh Shandilya
4:17श्री गुरु चरण सरोज छवि , निज मन मन्दिर धारि । सुमरि गजानन शारदा , गहि आशिष त्रिपुरारि ॥ बुद्धिहीन जन जानिये , अवगुणों का भण्डार । बरण परशुराम सुयश , निज मति के अनुसार । जय प्रभु परशुराम सुख सागर , जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर । । भृगुकुल मुकुट विकट रणधीरा , क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा । । जमदग्नी सुत रेणुका जाया , तेज प्रताप सकल जग छाया । मास बैसाख सित पच्छ उदारा , तृतीया पुनर्वसु मनुहारा । प्रहर प्रथम निशातीत न घामा , तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा । । तब ऋषि कुटीर रूदन शिशु कीन्हा , रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा । । निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े , मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े । तेज - ज्ञान मिल नर तनु धारा , जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा । । धरा राम शिशु पावन नामा , नाम जपत जग लहे विश्रामा । भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर , कांधे मुंज जनेऊ मनहर । । मंजु मेखला कटि मृगछाला , रूद्र माला बर वक्ष विशाला । । पीत बसन सुन्दर तनु सोहें , कंध तुणीर धनुष मन मोहें । वेद - पुराण - श्रुति - स्मृति ज्ञाता , क्रोध रूप तुम जग विख्याता । दायें हाथ श्रीपरशु उठावा , वेद - संहिता बायें सुहावा । विद्यावान गुण ज्ञान अपारा , शास्त्र - शस्त्र दोउ पर अधिकारा । भुवन चारिदस अरु नवखंडा , चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा । एक बार गणपति के संगा , जूझे भृगुकुल कमल पतंगा । दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा , एक दंत गणपति भयो नामा । । कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला , सहस्त्रबाहु दुर्जन विकराला । सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं , रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं । मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई , भयो पराजित जगत हंसाई । तन खलु हृदय भई रिस गाढ़ी , रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी । ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना , तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा । लगत शक्ति जमदग्नी निपाता , मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता । पितु - बध मातु - रूदन सुनि भारा , भा अति क्रोध मन शोक अपारा । । कर गहि तीक्षण परशु कराला , दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला । क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा , पितु - बंध प्रतिशोध सुत लीन्हा । । इक्कीस बार भू क्षत्रिय विहीनी , छीन धरा विप्रन्ह कहँ दीनी । जुग त्रेता कर चरित सुहाई , शिव - धनु भंग कीन्ह रघुराई । गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना , तव समूल नाश ताहि ठाना । कर जोरि तब राम रघुराई , विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई । भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता , भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता । शास्त्र विद्या देह सुयश कमावा , गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा । चारों युग तव महिमा गाई , सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई । दे कश्यप सों संपदा भाई , तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई । अब लौं लीन समाधि नाथा , सकल लोक नावइ नित माथा । चारों व एक सम जाना , समदर्शी प्रभु तुम भगवाना । लहहिं चारि फल शरण तुम्हारी , देव दनुज नर भूप भिखारी । जो यह पढ़ श्री परशु चालीसा , तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा । पृर्णेन्दु निसि वासर स्वामी , बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी । परशुराम को चारू चरित , मेटत सकल अज्ञान । शरण पड़े को देत प्रभु , सदा सुयश सम्मान