Bhole Ki Baraat
Ravan
3:47त्वं वेद्धा धर्मतः पार्थ धन्विनां हि महायशाः नास्ति संजयितुं शक्तः पृथिव्यां यस्त्वया रणे धनुर्वेदेऽसि सर्वेषां धर्मतः सत्यविक्रम न त्वया सदृशो लोके धनुर्धारी भविष्यति द्वापर का श्रेष्ठ धनुर्धारी, मेरा क्रोध प्रचंड प्रलयकारी, धरूँ श्वेत वस्त्र, गाण्डीवधारी, वही अर्जुन हूँ मैं शुरुआत से धर्म के पथ पर मैं, केशव का ज्ञान मेरी रग में, रण जीत ले जो बस क्षण भर में, वही अर्जुन हूँ मैं मेरा रूप है कामदेव जैसा, मेरा सखा हुआ है कृष्ण जैसा, भगवान का विश्वरूप देखा, वही अर्जुन हूँ मैं जो ठान लिया वो कर देता, बस लक्ष्य दिखा न कुछ देखा, शत्रु के प्राण जो हर लेता, वही अर्जुन हूँ मैं देवराज का अंश, जन्मा एक अनोखा बालक, माता ने जिसको पाला, पिता नहीं थे पालक सभी भ्राताओं ने प्यार दिया, सभी बड़ों ने खूब दुलार किया, पर जीवन में संघर्ष लिखा, बस धर्म का था वो कारक वही अर्जुन हूँ मैं, वही अर्जुन हूँ मैं मेरा रूप है कामदेव जैसा, मेरा सखा हुआ है कृष्ण जैसा, भगवान का विश्वरूप देखा, वही अर्जुन हूँ मैं जो ठान लिया वो कर देता, बस लक्ष्य दिखा न कुछ देखा, शत्रु के प्राण जो हर लेता, वही अर्जुन हूँ मैं आरंभ से ही एकाग्र ध्यान चित्त, गुणों में श्रेष्ठ प्रबलकारी शस्त्रों के ज्ञान में रुचि रही, बनना था श्रेष्ठ धनुर्धारी आठ वर्ष की आयु में मैंने त्याग दिया, विश्राम, नींद सब वानप्रस्थ स्वीकार किया और बन गया बाल ब्रह्मचारी गुरु द्रोण के पास में रहकर मुझको शस्त्र और शास्त्रिक ज्ञान हुआ, इनके ही श्रेष्ठ प्रशिक्षण में मेरा चरित्र निर्माण हुआ ध्यान, धैर्य, संयम, विवेक से दूर मेरा अज्ञान हुआ, गुरु भक्ति, समर्पण, निश्छलता , तभी अर्जुन आज महान हुआ मैंने खुद को आग में झोंक दिया, अभ्यास किया, न भोग किया अंधकार में जब न दृश्य दिखे, मैंने उस क्षण लक्ष्य भेद दिया गुरु द्रोण ने जब स्नान किया, मैंने उस क्षण ग्राह को देख लिया मेरे वायु गति से बाण चले, मैंने बाणों से उसे रोक दिया राजनीति और कूटनीति का ज्ञान था मुझे भयंकर, संगीत, नृत्य में निपुण था मैं, आदर्श मेरे शिव शंकर सब धनुर्धरों में श्रेष्ठ धनुर्धर, गुरु पुकारे कहकर, निश्छलता और समर्पण से मैं बन गया श्रेष्ठ धनुर्धर जब सब हारे तब मैंने ही मछली की आँख को भेद दिया, तब द्रौपदी का मैं पति हुआ, उसके संग जीवन देख लिया अज्ञात वास जब हुआ हमें, तब किन्नर का मैंने वेश लिया, फिर युद्ध विराट में मैंने अपने पौरुष का संदेश दिया फिर युद्ध विराट में मैंने अपने पौरुष का संदेश दिया फिर युद्ध विराट में मैंने अपने पौरुष का संदेश दिया द्वापर का श्रेष्ठ धनुर्धारी, मेरा क्रोध प्रचंड प्रलयकारी, धरूँ श्वेत वस्त्र, गाण्डीवधारी, वही अर्जुन हूँ मैं शुरुआत से धर्म के पथ पर मैं, केशव का ज्ञान मेरी रग में, रण जीत ले जो बस क्षण भर में, वही अर्जुन हूँ मैं मैं धरूँ पैर जिस युद्ध में, वो युद्ध एकतरफा करूं, पीछे न हटता मेरा पैर, रण से रण जीत लूँगा या मैं मरूं गाण्डीव से मैं अभी बाण छोड़ूं, और आसमान को चीर दूं, महादेव ने ये मुझको कहा था, मैं महारथी महावीर हूँ महादेव से मैंने युद्ध किया, पर उनसे जीत न पाया था, तब भोलेनाथ ने खुश होकर मुझे पशुपति अस्त्र थमाया था जब कुरुक्षेत्र में विचलित हो, कान्हा को हाल सुनाया था, कान्हा ने मुझको समझाया, फिर विश्वरूप दिखलाया था मैंने जब-जब धनुष उठाया, रण सम्पूर्ण रक्त से लाल किया, जिनकी गोदी में खेला, उन पर बाणों से मैंने वार किया भीष्म पितामह स्नेह करे, मुझे सब भ्राताओं से बढ़कर, तभी मृत्यु स्वयं स्वीकार करी, मेरी बाणों की शैय्या पर मैंने करी प्रतिज्ञा जयद्रथ का, कल तक संहार करूँगा, लूँगा, वरना अग्नि समाधि, मृत्यु स्वीकार करूँगा उस दिन, उस क्षण, उस रण में, मैंने ऐसा युद्ध किया था, संध्या से पहले मैंने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग किया था फिर हुआ सामना कर्ण से, मेरा, कर्ण बड़ा बलशाली था, शस्त्रों के ज्ञान में निपुण था, उसको अहंकार बड़ा भारी था तब पहिये संग सम्पूर्ण धरा का, जिसने भार उठा डाला, मैंने उसका वध भी कर डाला, क्योंकि साथ मेरे गिरधारी था अपने जीवन में मैंने हर दम धर्म का साथ दिया था, बस धर्म की खातिर अपनों का, मैंने नरसंहार किया था सब वेद पुराणों में अर्जुन का नाम अमर हो जाएगा, सर्वश्रेष्ठ योद्धा द्वापर का अर्जुन सदा कहायेगा यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम"